Lekhika Ranchi

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कपाल कुंडला--बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय


२: किनारे पर

“Ingratitude! Thou marble-hearted friend!”
—King Lear

आरोहियों की स्फूर्तिव्यंजक बातें समाप्त होने पर नाविकों ने प्रस्ताव किया कि ज्वार में अभी थोड़ा और विलम्ब है, अतः इस अवसर में यात्री लोग सामने की रेती पर अपने आहार आदि का आयोजन करें। इसके बाद ही ज्वार आते ही स्वदेश की तरफ यात्रा करनी होगी। आरोहियों ने यह सलाह मान ली, इसपर मल्लाहों के नाव को किनारे लगाने पर, आरोहीगण किनारे उतरकर स्नानादि प्रातः कृत्य पूरा करने लगे।

स्नानादि के बाद रसोई बनाना एक दूसरी विपत्ति साबित हुई। नावपर खाना बनाने के लिये आग बालने की लकड़ी न थी। बाघ आदि हिंस्र जन्तुओं के भयसे ऊपर जाकर लकड़ी काट लाने को कोई तैयार न हुआ। अन्त में सबका उपवास होने का उपक्रम होने का समय देखकर वृद्धने युवक से कहा—“बेटा, नवकुमार! अगर तुम इसका कोई उपाय न करोगे, तो हम सब भूखों मर जायेंगे।”

नवकुमार ने कुछ देर तक चिन्ता करने के बाद कहा—“अच्छा, जाता हूँ, कुदाल दे दो और दाव लेकर एक आदमी मेरे साथ चले।”
लेकिन कोई भी नवकुमार के साथ जाने को तैयार न हुआ।

“अच्छा, खानेके समय समझूँगा।” यह कहकर नवकुमार अकेले कमर कसकर कुठारहस्त होकर लकड़ी लाने को चल पड़े।

किनारे के करार पर चढ़कर नवकुमार ने देखा कि जितनी दूर दृष्टि जाती है, कहीं भी बस्ती का कोई भी लक्षण नहीं है, केवल जंगल ही जंगल है। लेकिन वह जंगल बड़े-बड़े वृक्षों से पटा घना जंगल नहीं है, बल्कि स्थान-स्थान पर गोलाकार पौधों के रूप में चटियल भूमिखण्ड मात्र है। नवकुमार ने उसमें जलानें लायक लकड़ी नहीं पायी। अतः उपयुक्त वृक्ष की खोज में उन्हें नदी तट से काफी दूर जाना पड़ा। अन्त में लकड़ी काटने लायक एक वृक्ष से उन्होंने लकड़ी काटना शुरू किया। लकड़ी काट चुकने पर उसे उठाकर ले आना, एक दूसरी समस्या आ खड़ी हुई। नवकुमार कोई दरिद्र की सन्तान न थे कि उन्हें इसका अभ्यास होता; आने के समय उन्हें इस समस्या का अनुभव ही न हुआ, अन्यथा जिस किसी को साथ ले ही आते। अब लकड़ी का ढोना उनके लिये एक विषम कार्य हो गया। जो भी हो, काम में प्रवृत्त हो जाने पर सहज ही उससे हताश हो जाना नवकुमार जानते न थे। इस कारण, किसी तरह कष्ट सहते हुए लकड़ी ढोकर नवकुमार लाने ही लगे। कुछ दूर बोझ लेकर चलनेपर थककर वह सुस्ताने लगते थे। फिर ढोते थे, फिर विश्राम करते थे; इसी तरह वे वापस होने लगे।

इस तरह नवकुमार के लौटने में काफी विलम्ब होने लगा। इधर उनके साथी उनके आने में विलम्ब होते देख उद्विग्न होने लगे। उन्हें यह आशंका होने लगी कि शायद नवकुमार को बाघ ने खा डाला। संभाव्य काल व्यतीत होने पर उन लोगोंके हृदय में यही सिद्धान्त जमने लगा। फिर भी, किसी में यह साहस न हुआ कि किनारे के ऊपर चढ़कर कुछ दूर जाकर पता लगाये।

नौका रोही यात्री इस तरह की कल्पना कर ही रहे थे कि भैरव रव से कल्लोल करता जल बढ़ने लगा। मल्लाह समझ गये कि ज्वार आ गया। मल्लाह यह भी जानते थे कि इस विशेष अवसर पर तटवर्ती नावें इस प्रकार जलके थपेड़ों से जमीन पर पटकनी खाकर चूर-चूर हो जाती हैं, इसलिये वह लोग बहुत शीघ्रता के साथ नाव खोलकर नदी की बीचधार में चले जाने का उपक्रम करने लगे। नाव के खुलते-न-खुलते सामने की रेतीली भूमि जलमग्न हो गई। यात्रीगण व्यस्त होकर केवल स्वयं नौका पर सवार ही हो सके। तटपर रखा हुआ आहार बनाने का सारा सामान उठाने का उन्हें मौका ही न मिला।

जल का वेग नाव को रसूलपुर की नदी के बीच खींचे ले जा रहा था, लौटने में विलम्ब और बहुत तकलीफ उठानी पड़ेगी, इस ख्याल से यात्री प्राणपण से उससे बाहर निकल आने की चेष्टा करने लगे। यहाँ तक कि उन मल्लाहों के माथेपर मेहनत के कारण पसीने की बूँदें झलकने लगी। इस मेहनत के फलस्वरूप नाव नदी के बाहर तो अवश्य आ गयी, किन्तु ज्वार के प्रबल वेग के कारण एक क्षणके लिये भी रुक न सकी और तीर की तरह उत्तर की तरफ आगे बढ़ी, यानी बहुत मिहनत करके भी वे नाव को रोक न सके, और नाव फिर वापस न आ सकी।

जब जल का वेग अपेक्षाकृत मन्द हुआ, तो उस समय नाव रसूलपुर के मुहाने से काफी दूर आगे बढ़ गई थी। अब इस मीमांसा की आवश्यकता हुई कि नवकुमार के लिये नाव फिर लौटाई जाय या नहीं? हां यहीं यह कह देना भी आवश्यक है कि नवकुमार के सहयात्री उनके पड़ोसीमात्र थे, कोई आत्मीय न था। उन लोगों ने विचारकर देखा कि अब लौटना फिर एक भाटे का काम है। इसके बाद ही फिर रात हो जायगी और रात को नाव चलाई जा नहीं सकती, अतः फिर दूसरे दिन के ज्वार के लिये रुकना पड़ेगा। तबतक लोगोंको अनाहार भी रहना पड़ता। दो दिनों के उपवाससे लोगोंके प्राण कण्ठगत हो जायँगे। विशेषतः यात्री किसी तरह भी लौटने के लिये तैयार नहीं हैं, वे किसी की आज्ञा के बाध्य भी नहीं। उन सबका कहना है कि नवकुमार की हत्या बाघ द्वारा हो गयी, यही सम्भव है। फिर इतना क्लेश क्यों उठाया जाय।

इस तरह विवेचन कर नवकुमार को छोड़कर देश लौट चलना ही उचित समझा गया। इस प्रकार उस भीषण जंगल में समुद्र के किनारे वनवास के लिये नवकुमार छोड़ दिये गये।

यह सुनकर यदि कोई प्रतिज्ञा करे कि किसी के भी उपवासनिवारण के लिये कभी लकड़ी एकत्रित करने न जायेंगे, तो वह पामर है—यात्रीगण की तरह ही पामर। आत्मोपकारी को वनवास में विसर्जन कर देने की जिनकी प्रकृति है, वे तो चिरकाल तक इसी प्रकार आत्मोपकारी को विसर्जन करते ही रहेंगे—किन्तु ये लोग कितनी ही बार वनवासी क्यों न बनाते रहें, दूसरे के लिये लकड़ी एकत्रित कर देने की जिसकी प्रकृति है, वह तो बारम्बार ही इसी तरह आत्मोपकार करता रहेगा। तुम अधम हो—केवल इसीलिये हम अधम हो नहीं सकते!

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